Karm Ka Siddhant| Principle of Karma in Hindi with a Story : यह संसार कर्मभूमि है । यहाँ कर्म और कर्मफल की बड़ी सुव्यवस्था है ।
नरक और नीच योनियाँ पाप के फल हैं । स्वर्ग और ऊँचे भोग ये पुण्य के फल हैं । मनुष्य के जीवन में पुण्य और पाप दोनों का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा चलता है और जो जैसा करता है वैसा फिर उसको परिणाम भी मिलता है ।
जयपुर और कोटा के बीच सवाई माधोपुर से थोड़ी से दूरी पर ‘क्वालजी’ नामक प्रसिद्ध तीर्थ है । नारायण शर्मा नाम के एक व्यक्ति के कुछ साथी उस तीर्थ में गये । वहाँ एक भिखमंगे को देखकर नारायण शर्मा के एक साथी का पसीजा ।
उसने उस भिखारी से पूछा : अरे भाई ! ये तेरी दोनो टांगे कैसे कटी ? अक्सिडेंट में कटी कि क्या हुआ ? अक्सिडेंट से दोनों और बराबर इस ढंग से तो नहीं कट सकते । तू युवक लड़का, इस उम्र में तेरी दोनों टांगें कैसे कटी ?
युवक ने आँसू बहाते हुये कहा
: “साहब ! मैंने अपने हाथ से ही ये दोनों टांगे काटी है ।” यह सुनकर नारायन शर्मा का वाह साथी चकित रह गया ।
“ अपने पैर जानबूझकर कोई क्यों काटेगा ? सच बताओ क्या हुआ ?”
लड़का बोला : “साहब ! जरा मेरी कहानी सुनो । मैं गरीब घर का लड़का था, बकरी चराता था । मेरे स्वभाव में ही हिंसा थी, क्रूरता थी ।
कोई जीव-जंतु देखता, पक्षियों या जानवरों को देखता तो पत्थर मारता था । जैसे शैतान छोरे निर्दोष कुत्तों को देखकर पत्थर मार देते है, पक्षियों को पत्थर मारे देते है, ऐसा मेरा शौक था ।
जंगल में बकरियाँ चर रही थी । कुल्हाड़ी मेरे कंधे पर थी । मै इधर-उधर घूमता–घामता घनी झाडियों की और निकल गया । वहाँ एक हिरणी ने उस दिन बच्चे को जन्म दिया था ।
मुझे देखकर मेरी कुल्हाड़ी और क्रूरता से भयभीत हिरणी तो प्राण बचा के वहाँ से भाग गई, बच्चा भाग नहीं सका । में इतना क्रूर और नीच स्वभाव का था कि मैंने अपनी कुल्हाड़ी से हिरणी के नवजात बच्चे की चारों-की-चारों टांगे घुटनों के ऊपर से काट डाली । उस समय मुझे क्र्रुता का मजा आया ।
वहाँ कोई देखनेवाला नहीं था । 302 और 307 कलम वह हिरणी का बच्चा कहाँ से लगवायेगा और सरकार भी क्या लगायेगी ? लेकिन एक ऐसी सरकार है कि सारी सरकारों के कानूनों को उथल-पुथल करके सृष्टि चला रही है ।
यह मुझे अब पता चला । वहाँ कोई नहीं था फिर भी कर्म का फल देनेवाला वह अंतर्यामी देव कितना सतर्क है !
मैंने हिरणी के बच्चे के पैर तो काटे लेकिन एकांध महीने में ही मेरे पैरों में पीड़ा चालू हो गयी । मैं 15-16 साल का युवक इलाज कर–करके थक गया ।
माँ–बाप को जो कुछ दम लगाना था, लगा लिया । बाबूजी ! मैं जयपुर के अस्पताल में भर्ती कराया गया | डॉक्टरों ने कहाँ कि ‘अगर लड़के को बचाना है तो इसके पैर कटवाने पड़ेंगे, नहीं तो यह मर जायेगा ।’
मैंने दोनों पैर कटवा दिये । साहब ! मैंने अपनी टांगे आप ही काटी है ।
जब हिरण के बच्चे की टांगे मैंने काटी उस समय किसी ने नहीं देखा था, फिर भी उस समय सबके कर्मों का हिसाब रखनेवाला, सब कुछ देखनेवाला परमात्मा था ।
दो टांगे तो मेरी कट गयी, दो हाथ काटने बाकी है क्योंकि मैंने उसकी चारों टांगे काटी थी । मेरी टांगे जब कट गयी तो मैं किसी काम का न रहा । घरवाले मुझे इस तीर्थ में भीख मांगने के लिए छोड़ गये ।
कोई किसीका नहीं है । यह स्वार्थी जमाना …. जब तक कोई किसी के काम आता है तब तक रखते है, बाद में सब एक–दुसरे से मुँह मोड़ लेते है ।
चोटे खाने के बाद मुझे पता चला कि कर्म का सिद्धांत अकाटय है । अब मैं मानता हूँ कि शुभ और अशुभ कर्म कर्ता को छोड़ते नहीं !
अभी संतों के चरणों में मेरी श्रद्धा हुई, काश ! पहले होती तो मेरी यह दुर्गति नहीं होती । पैर कटने से पहले, भिखमंगा होने से पहले अगर सत्संग सुनता तो मै हिंसक, क्रूर और मोहताज न बनता ।
सत्संग से मेरा हिंसा, क्रूरता का स्वभाव छुटकर सेवा और सज्जनता का स्वभाव हो जाता ।” ऐसा कहकर वह रो पड़ा ।
नारायण शर्मा के मित्र ने कहाँ कि ‘उस लडके की दैन्य दशा देखकर लगा कि सृष्टिकर्ता कितना न्यायप्रिय, कितना सक्षम और कितना समर्थ है !’