काशी में तुलसीदास जी की बढ़ती ख्याति देखकर साजिशों की श्रृंखला को बढ़ाते हुए काशी के ही कुछ पंडितों को तुलसीदास जी के खिलाफ भड़काया गया। वहाँ कुप्रचारकों का एक टोला बन गया, जो नये-नये वाद-विवाद खड़े करके गोस्वामी जी को नीचा दिखाने में लगा रहता था। परंतु जैसे-जैसे कुप्रचार बढ़ता, अंजान लोग भी सच्चाई जानने के लिए सत्संग में आते और भक्ति रस से पावन होकर जाते, जिससे संत का यश और बढ़ता जाता था।
अपनी सारी साजिशें विफल होती देख विधर्मियों ने कुप्रचारक पंडितों के उस टोले को ऐसा भड़काया कि उन दुर्बुद्धियों ने गोस्वामी जी को काशी छोड़कर चले जाने को विवश किया। प्रत्येक परिस्थिति में राम-तत्व का दर्शन व हरि-इच्छा की समीक्षा करने वाले तुलसीदास जी काशी छोड़कर चले दिए। जाते समय उन्होंने एक पत्र लिख के शिव मंदिर के अंदर रख दिया।
उस पत्र में लिखा था कि ‘हे गौरीनाथ ! मैं आपके नगर में रहकर रामनाम जपता था और भिक्षा माँगकर खाता था। मेरा किसी से कोई वैर-विरोध, राग-द्वेष नहीं है परंतु इस चल रहे वाद-विवाद में न पड़कर मैं आपकी नगरी से जा रहा हूँ ।’
भगवान भोलेनाथ संत पर अत्याचार कैसे सह सकते थे !? संत के जाते ही शिव मंदिर के द्वार अपने आप बंद हो गये। पंडितों ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया पर द्वार न खुले। कुछ निंदकों के कारण पूरे समाज में बेचैनी-अशांति फ़ैल गई, सबके लिए संत-दर्शन व शिव-दर्शन दोनों दुर्लभ हो गये। आखिर लोगों ने भगवान शंकर से करुण प्रार्थना की। भोलेनाथ ने शिव मंदिर के प्रधान पुजारी को सपने में आदेश दिया :”पुजारी ! स्वरूपनिष्ठ संत मेरे ही प्रकट रूप होते हैं। तुलसीदास जी का अपमान कर निंदकों ने मेरा ही अपमान किया है। इसीलिए मंदिर के द्वार बंद हुए हैं। अगर मेरी प्रसन्नता चाहते हो तो उन्हें प्रसन्न कर काशी में वापस ले आओ वरना मंदिर के द्वार कभी नहीं खुलेंगे ।”
अगले दिन प्रधान पुजारी ने सपने की बात पंडितों को कह सुनायी। समझदार पंडितों ने मिलकर संत की निंदा करने वाले दुर्बुद्धियों को खूब लताड़ा और उन्हें साथ ले जाकर संत तुलसीदास जी से माफ़ी मंगवायी। सभी ने मिलकर गोस्वामी जी को काशी वापस लौटने की करुण प्रार्थना की। संतश्री के मन में तो पहले से ही कोई वैर न था, वे तो समता के ऊँचे सिंहासन पर आसीन थे। करुणा हृदय तुलसीदास जी ने उन्हें क्षमा कर काशी वापस आ गये। शिवमंदिर के द्वार अपने आप खुल गये। संत-दर्शन और भगवद्-दर्शन से पुनः आनंद-उल्लास छा गया।
भगवान अपना अपमान तो सह लेते हैं परंतु संत का अपमान नहीं सह पाते। निंदक सुधर जाते तो ठीक वरना उन्हें प्रकृति के कोप का भाजन अवश्य बनना पड़ता है।
– ऋषि प्रसाद/जुलाई 2013