Khana Kis Bartan Mein Banana Chahiye | Kis  Bartan Me Pani Pina Chahiye – Mitti Ke Bartan Ya Steel Ke Bartan :

भोजन शुद्ध, पौष्टिक, हितकर व सात्विक बनाने के लिए हम आहार व्यंजनों पर जितना ध्यान देते हैं उतना ही ध्यान हमें भोजन के बर्तनों पर भी देना आवश्यक है । भोजन बनाते समय हम हितकर आहार द्रव्य उचित मात्रा में लेकर, यथायोग्य पदार्थों को एक साथ मिलाकर उन पर जब अग्नि संस्कार करते हैं तब वे जिस बर्तन में पकाये जा रहे हैं उस बर्तन के गुण अथवा दोष भी उस आहार द्रव्य में समाविष्ट हो जाते हैं । अतः भोजन किस प्रकार के बर्तनों में बनाना चाहिए अथवा किस प्रकार के बर्तनों में भोजन करना चाहिए इस पर भी शास्त्रों ने आदेश दिये हैं ।

भोजन के समय खाने व पीने के पात्र अलग-अलग होने चाहिए । वे स्वच्छ, पवित्र व अखण्ड होने चाहिए । सोना, चाँदी, काँसा, पीतल, लोहा, काँच, पत्थर अथवा मिट्टी के बर्तनों में भोजन बनाने की पद्धति प्रचलित है । इसमें सुवर्णपात्र सर्वोत्तम तथा मिट्टी के पात्र हीनतम माने गये हैं । सोने के बाद चाँदी, काँसा, पीतल, लोहा और काँच के बर्तन क्रमशः हीन गुणवाले होते हैं ।

काँसे के पात्र बुद्धिवर्धक, स्वाद अर्थात् रूचि उत्पन्न करने वाले तथा रक्तपित्त का निवारण करनेवाले होते हैं । अतः काँसे के पात्र में भोजन करना चाहिए । इससे बुद्धि का विकास होता है । जो व्यक्ति रक्त-पित्तजन्य विकारों से ग्रस्त हैं अथवा उष्ण प्रकृतिवाले हैं उनके लिए भी काँसे के पात्र हितकर हैं । अम्लपित्त, रक्तपित्त, त्वचाविकार, यकृत तथा हृदयविकार से पीड़ित व्यक्तियों के लिए भी काँसे के पात्र स्वास्थ्यप्रद हैं । इससे पित्त का शमन व रक्त की शुद्धि होती है ।

लोहे की कढ़ाई में सब्जी बनाना तथा लोहे के तवे पर रोटी सेकना हितकारी है परन्तु लोहे के बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिए इससे बुद्धि का नाश होता है । स्टील के बर्तन में बुद्धिनाश का दोष नहीं माना जाता । सुवर्ण, काँसा, कलई किया हुआ पीतल का बर्तन हितकारी है । पेय पदार्थ चाँदी के बर्तन में लेना हितकारी है लेकिन लस्सी आदि खट्टे पदार्थ न लें । एल्यूमिनियम के बर्तनों का उपयोग कदापि न करें ।

केला, पलाश अथवा बड़ के पत्र रूचि उत्पन्न करनेवाले तथा विषदोष का नाश करनेवाले तथा अग्नि को प्रदीप्त करने वाले होते हैं । अतः इनका उपयोग भी हितावह है ।

पानी पीने के पात्र के विषय में भावप्रकाश ग्रंथ में लिखा है –

जलपात्रं तु ताम्रस्य तदभावे मृदो हितम् ।

पवित्रं शीतलं पात्रं रचितं स्फटिकेन यत् ।

काचेन रचितं तद्वत् तथा वैडूर्यसम्भवम् ।

(भावप्रकाश, पूर्वखण्ड, 4)

अर्थात् पानी पीने के लिए ताँबा, स्फटिक अथवा काँच-पात्र का उपयोग करना चाहिए । सम्भव हो तो रत्नजड़ित पात्र का उपयोग करें । ताँबा तथा मिट्टी के जलपात्र पवित्र व शीतल होते हैं । टूटे-फूटे बर्तन से अथवा अंजली से पानी नहीं पीना चाहिए ।

– ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001