एक समय की बात है, आत्मानंद की मस्ती में रमण करने वाले भगवान बुद्ध जेतवन में ठहरे हुए थे । एक सुबह कौशल नरेश प्रसेनजित बुद्ध के पास आकर बैठ गए । नींद उन्हें अभी भी सता रही थी, परंतु वे बार-बार अपनी आँखे खोलने का असफल प्रयत्न कर रहे थे ।भगवान बुद्ध ने जब उनकी यह दशा देखी तो पूछा : “राजन् ! आपकी सुस्ती का क्या कारण है ? क्या रात को आप अच्छी तरह सोये नहीं ?”
राजा : “भन्ते ! रात को मैं सोया तो था, परंतु पता नहीं क्या बात है कि जब भी मैं कुछ खा लेता हूँ तो मेरी ऐसी दशा हो जाती है ।”
वास्तव में राजा प्रसेनजित भोजन के विशेष प्रेमी थे । चटपटा, मसालेदार भोजन बनवाकर खूब पेट भरकर खाया करते थे । आज सुबह वे नाश्ता करते ही ऊँघने लगे परंतु वे सवेरे-सवेरे लेटना नहीं चाहते थे । इसलिए बाहर टहलने के लिए निकले और टहलते-टहलते जेतवन पहुँच गये ।
राजन् ! संयम रखकर परिमिति मात्रा में भोजन करना ही बुद्धिमानी है । ऐसा भोजन तृप्ति भी देता है। अल्पाहारी व्यक्ति जल्दी बूढ़ा नहीं होता और अनेक शारीरिक पीड़ाओं से बचा रहता है ।”
राजा प्रसेनजित ने बुद्ध की शिक्षा के अनुसार चलने का प्रयत्न तो किया परंतु सफल नहीं हुए । तब महात्मा बुद्ध ने उनके भतीजे राजकुमार सुदर्शन को बुलाया और राजा की सहायता करने के लिए कहा ।
बुद्ध ने राजकुमार से कहा : “जब राजा उचित मात्रा में भोजन कर लें तो उन्हें टोक देना और ज्यादा न खाने देना । उन्हें उचित मात्रा में ही भोजन परोसा जाये जिससे दुबारा माँगने की जरूरत ही न हो ।”
राजा ने इस प्रयोग में अपने भतीजे का साथ दिया ।; उसके टोकने से पहले ही राजा भोजन से उठ जाते थे । जब-जब सुदर्शन ने राजा को चेताया तब-तब उन्होंने जुर्माने के रूप में एक हजार अशर्फियाँ दान दीं । ऐसा करने से थोड़े ही समय में उनका भोजन नियंत्रित हो गया। मोटापा भी कम हो गया। राजा ने बुद्ध को धन्यवाद देते हुए कहा :”परिमिति भोजन से मुझे मेरी प्रसन्नता वापस मिल गयी । अब मैं अधिक स्फूर्ति और स्वास्थ्य का अनुभव करता हूँ ।”
राजा की तरह अगर हम भी अधिक भोजन करने की आदत के शिकार हैं तो संतों की युक्तियाँ अपनाकर खोयी हुई प्रसन्नता,स्वास्थ्य और स्फूर्ति वापस पा सकते हैं ।
दहीबड़े, समोसे, कचौड़ियाँ, रसगुल्ले, पनीर और हलवाई की दुकान की चीजें धीमा जहर (slow poison) हैं । बासी अन्न, बार-बार गरम किया गया खाद्य पदार्थ…ये स्वास्थ्य के दुश्मन हैं । अपने मित्र बनें, अधिक या अनुचित खाकर अपने दुश्मन न बनें ।
अधिक ठाँस-ठाँसकर खाना रोगों को जन्म देना है । पेट का आधा हिस्सा अन्न से, चौथाई हिस्सा जल से भरना चाहिए और शेष भाग वायु के आवागमन के लिए खाली छोड़ना चाहिए । जब तक पहले का खाया हुआ भोजन पच नहीं जाए, तब तक पुनः भोजन न करें । इससे भोजन पचने में सुविधा होती है और शरीर में भी स्फूर्ति, ताजगी और प्रसन्नता रहती है ।
– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
~ लोक कल्याण सेतु, अप्रैल-मई 2003