कबीर जी ने सोचा कि गुरू किये बिना काम बनेगा नहीं……!!!
उस समय काशी में रामानन्द नाम के संत बड़े उच्च कोटि के महापुरूष माने जाते थे। कबीर जी ने उनके आश्रम के मुख्य द्वार पर आकर विनती कीः “मुझे गुरुजी के दर्शन कराओ।”
उस समय जात-पात का बड़ा आग्रह रहता था। और फिर काशी ! वहाँ पण्डितों और पण्डे लोगों का अधिक प्रभाव था। कबीर जी किसके घर में पैदा हुए थे, हिन्दू के या मुस्लिम के, कुछ पता नहीं था।
एक जुलाहे को रास्तें में किसी पेड़ के नीचे से मिले थे। उसने पालन-पोषण करके कबीर जी को बड़ा किया था। जुलाहे के घर बड़े हुए तो जुलाहे का धन्धा करने लगे। लोग मानते थे कि वे मुसलमान की संतान हैं।
द्वारपालों ने कबीरजी को आश्रम में जाने नहीं दिया। कबीर जी ने सोचा कि पहुँचे हुए महात्मा से अगर गुरूमंत्र नहीं मिलता तो मनमानी साधना से ‘हरिदास’ बन सकते हैं, हरिमय नहीं बन सकते। कैसे भी करके रामानन्दजी महाराज से मंत्रदीक्षा लेनी है।
कबीर जी ने देखा कि हर रोज सुबह तीन-चार बजे स्वामी रामानन्द खड़ाऊँ पहनकर ‘टप…टप….’ आवाज करते गंगा में स्नान करने जाते हैं। कबीर जी ने गंगा के घाट पर उनके जाने के रास्ते में और सब जगह बाड़ कर दी। एक ही मार्ग रखा और उस मार्ग में सुबह के अन्धेरे में कबीर जी सो गये। गुरू महाराज आये तो अन्धेरे के कारण कबीर जी पर पैर पड़ गया। उनके मुख से उदगार निकल पड़ेः “राम… राम… राम….।
“कबीरजी का तो काम बन गया। गुरूजी के दर्शन भी हो गये, उनकी पादुकाओं का स्पर्श भी मिल गया और गुरूमुख से रामनाम का मंत्र भी मिल गया। अब दीक्षा में बाकी ही क्या रहा ? कबीर जी नाचते, गाते, गुनगुनाते घर वापस आये। रामनाम की और गुरूदेव के नाम की रट लगा दी। अत्यंत स्नेहपूर्वक हृदय से गुरूमंत्र का जप करते, गुरूनाम का कीर्तन करते साधना करने लगे। दिनोंदिन उनकी मस्ती बढ़ने लगी। जो महापुरूष जहाँ पहुँचे हैं वहाँ की अनुभूति उनका भावपूर्ण हृदय से चिन्तन करने वाले को भी होने लगती है।
काशी के पण्डितों ने देखा कि यवन का पुत्र कबीर रामनाम जपता है, रामानन्द के नाम का कीर्तन करता है ! उस यवन को रामनाम की दीक्षा किसने दी ? क्यों दी ? मंत्र को भ्रष्ट कर दिया ! पण्डितों ने कबीर से पूछाः
“रामनाम की दीक्षा तेरे को किसने दी ?”
“स्वामी रामानन्दजी महाराज के श्रीमुख से मिली।”
“कहाँ दी ?”
“सुबह गंगा के घाट पर।
“पण्डित पहुँचे रामानन्द जी के पासः “आपने यवन को राममंत्र की दीक्षा देकर मंत्र को भ्रष्ट कर दिया, सम्प्रदाय को भ्रष्ट कर दिया। गुरू महाराज ! यह आपने क्या किया ?
“गुरू महाराज ने कहाः “मैंने तो किसी को दीक्षा नहीं दी।”
“वह यवन जुलाहा तो रामानन्द….. रामानन्द…. मेरे गुरूदेव रामानन्द” की रट लगाकर नाचता है, आपका नाम बदनाम करता है।”
“भाई ! मैंने उसको कुछ नहीं कहा। उसको बुलाकर पूछा जाय। पता चल जायेगा।
“काशी के पण्डित इकट्ठे हो गये। जुलाहा सच्चा कि रामानन्दजी सच्चे यह देखने के लिए भीड़ हो गई।
कबीर जी को बुलाया गया। गुरू महाराज मंच पर विराजमान हैं। सामने विद्वान पण्डितों की सभा बैठी है।
रामानन्दजी ने कबीर से पूछाः “मैंने तुझे कब दीक्षा दी ? मैं कब तेरा गुरू बना ?
कबीर जी बोलेः “महाराज ! उस दिन प्रभात को आपने मेरे को पादुका का स्पर्श कराया और राममंत्र भी दिया, वहाँ गंगा के घाट पर।
“रामानन्द जी कुपित से हो गये। कबीर जी को अपने सामने बुलाया और गरज कर बोलेः “मेरे सामने तू झूठ बोल रहा है ? सच बोल….”
“प्रभु ! आपने ही मुझे प्यारा रामनाम का मंत्र दिया था….
“रामानन्दजी को गुस्सा आ गया। खडाऊँ उठाकर दे मारी कबीर जी के सिर पर। राम… राम…राम….! इतना झूठ बोलता है….।”
“कबीर जी बोल उठेः “गुरू महाराज ! तबकी दीक्षा झूठी तो अबकी तो सच्ची…!”
मुख से रामनाम का मंत्र भी मिल गया और सिर में आपकी पावन पादुका का स्पर्श भी हो गया।
“स्वामी रामानन्द जी उच्च कोटि के संत-महात्मा थे। घड़ी भर भीतर गोता लगाया, शांत हो गये। फिर पण्डितों से कहाः “चलो, यवन हो या कुछ भी हो, मेरा पहले नम्बर का शिष्य यही है।”
ब्रह्मनिष्ठ सत्पुरूषों की विद्या या दीक्षा प्रसाद खाकर मिले तो भी बेड़ा पार करती है और मार खाकर मिले तो भी बेड़ा पार कर देती है।
सदगुरू की कृपा से ही साधना में रस आता है। जैसे गन्ना मीठा तो होता है, उसे अपनी मधुरता का पता नहीं होता, ऐसे ही तुम मधुर तो हो, तुम्हें मधुरता का पता नहीं है। वे दिन अपने जल्दी लाओ। अपनी महिमा को पहचानो। अपने नित्य, मुक्त, शुद्ध, बुद्ध आत्मा को जानो। हे अमर आत्मा ! कब तक मरने-मिटने वाले वासना-विकारों से अपने को सताते रहोगे ? उठो जागो। लग जाओ आतंर यात्रा में। हरि ॐ… ॐ…. ॐ…..