- महात्मा तैलंग स्वामी दक्षिण भारत में विजना जनपद के होलिया ग्राम में सन् 1607 में पौष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को इस धरा पर अवतरित हुए । उनके पिता श्री नृसिंहधर गाँव के जमींदार थे और माता विद्यावती भगवान शंकर की अनन्य भक्त थीं । स्वामीजी के जन्म से पूर्व उनकी माता को सपने में कभी-कभी भगवान शंकर दिखाई देते थे ।
- नामकरण संस्कार के समय बालक का नाम माता ने शिवराम और पिता ने वंश परम्परानुसार शिवराम तैलंगधर रखा । बाल्यकाल से ही उनमें चंचलता का अभाव था । उनके हमउम्र बालक हुड़दंग मचाते किंतु वे उस समय मंदिर प्रांगण में अकेले एकटक कभी आकाश की ओर तो कभी शिवलिंग को निहारा करते और कभी-कभी बरगद के वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो जाते थे ।
- किशोर शिवराम ने एक दिन माँ से प्रश्न कियाः “माँ ! भगवान पूजा से प्रसन्न होते हैं या भक्ति से ?”
- माँ ने समझाते हुए कहाः “बेटा ! भक्ति पूजा से उत्पन्न होती है और सेवा से दृढ़ होती है । इस प्रकार साधक के आध्यात्मिक जीवन का विकास होता है । ‘गीता’ (9.26) में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है :
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ।।
- ‘जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट हो के प्रीतिसहित खाता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ ।’
- अगर सरल हृदय से शुद्ध भक्ति की जाय तो भगवान उसे ग्रहण करते हैं । शुद्ध भक्ति साधना से मिलती है, तब आत्मज्ञान प्राप्त होता है और यह आत्मज्ञान सद्गुरु प्रदान करते हैं । सद्गुरु से आत्मज्ञान प्राप्त करने पर ही साधना सफल होती है ।”
- वास्तव में शिवराम को आध्यात्मिक मार्गदर्शन देने वाली प्रथम गुरु उनकी माँ ही थीं ।
- श्रीमद्भागवत (5.5.18) में आता है कि ‘वह माता माता नहीं , वह पिता पिता नहीं जो पुत्र को भगवान के रास्ते न लगाये । ‘
कैसे जगी गुरुप्राप्ति की तड़प ?
- माँ से भगवद्भक्ति एवं आध्यात्मिक ज्ञान की बातें सुनकर शिवराम का सरल हृदय गुरुप्राप्ति के लिए तड़प उठा । एक दिन उन्होंने माँ से कहाः “माँ ! जब आप मुझे ज्ञान की इतनी बातें बताती हो तो मुझे वह ज्ञान क्यों नहीं दे देतीं ? माँ से बढ़कर भला मुझे कौन गुरु मिलेगा ?”
- माँ ने कहाः “तुम्हारे जो गुरु हैं वे समय आने पर तुम्हें अवश्य अपने पास बुला लेंगे या स्वयं तुम्हारे पास आ जायेंगे । वत्स ! इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ेगी । ” इसी प्रकार माँ अपने बेटे का ज्ञान बढ़ाती रही ।
- ‘इस क्षणभंगुर, नश्वर देह का कोई भरोसा नहीं । जो अनश्वर हैं, चिरस्थायी हैं, उन्हीं परमात्मदेव के अनुसंधान में अपना ध्यान केन्द्रित करूँगा । ‘ – यह निश्चय कर शिवराम ने विवाह नहीं किया, आजीवन ब्रह्मचारी रहे ।
वैराग्यमय जीवन और पूर्णता की प्राप्ति
- सन् 1647 में शिवराम के पिता का निधन हो गया । उस समय शिवराम की उम्र 40 वर्ष थी । सन् 1657 में माँ विद्यावती भी चल बसीं । उनकी चिता को अग्नि देने के बाद सब लोग चले गये पर शिवराम वहीं बैठे रहे । भाई तथा गाँव के बुजुर्गों ने उनसे घर लौटने का आग्रह किया ।
- शिवराम ने कहाः “इस नश्वर शरीर के लिए एक मुट्ठी भोजन काफी है । वह कहीं न कहीं मिल ही जायेगा । रहने के लिए इससे उपयुक्त स्थान अन्यत्र कहीं नहीं है । “
- ‘इस क्षणभंगुर, नश्वर देह का कोई भरोसा नहीं । जो अनश्वर हैं, चिरस्थायी हैं, उन्हीं परमात्मदेव के अनुसंधान में अपना ध्यान केन्द्रित करूँगा ।’
- वे चिता की राख शरीर पर मलकर वहीं बैठे रहे । उनके छोटे भाई श्रीधर ने उनके लिए वहाँ एक कुटिया बनवा दी, जिसमें वे लगभग 20 वर्ष तक साधनारत रहे ।
- फिर उन्हें सद्गुरु के रूप में भगीरथ स्वामी मिले । भगीरथ स्वामी ने उन्हें दीक्षा देकर बीजमंत्र प्रदान किया । दीक्षा के पश्चात उन्हें कई गुह्य रहस्यों की जानकारी होने लगी । 10 वर्ष पश्चात स्वामी जी ने उनको अपने निकट बुलाकर कहाः “अब तुम पूर्ण हो गये हो । भगवत्कृपा से तुम्हें जो कुछ प्राप्त हुआ है, अब उसका उपयोग लोक कल्याण के लिए करो और अपनी शक्ति पर कभी घमंड मत करना ।” इसके बाद तैलंग स्वामी के जीवन में ऐसी कई घटनाएँ घटित हुईं जो उनके योग सामर्थ्य एवं जनहित की भावना को दर्शाती हैं । वे 280 साल तक धरती पर रहे ।
- माँ के बचपन के दिये भगवद्भक्ति, ज्ञान व सद्गुरु-प्रीति के संस्कारों न बालक शिवराम को महात्मा तैलंग स्वामी बना दिया, जिनके हयातीकाल में उनके सत्संग-सान्निध्य का लाभ पाकर कइयों ने अपना जीवन धन्य किया ।
~ ‘माँ तू कितनी महान’ साहित्य से