…..तो कामोत्तेजक वातावरण में भी ब्रह्मचर्य सहज !
स्त्री-दर्शन में, विजातीय परिचय में हम में विकार उत्पन्न होता है क्योंकि विजातीय शरीर के बारे में हमको उसी ही दृष्टि के संस्कार मिले हैं और वर्तमान में हमारी वही दृष्टि रही है । इसलिए विजातीय शरीर विकार-भाजन के स्वरूप में ही हमें दिखता है और हम विकारी बनते हैं परंतु सही अर्थ में स्त्री- शरीर या पुरुष-शरीर विकारी विचार का कारण नहीं है, वह तो सिर्फ निमित्त है ।
यदि स्त्री-शरीर ही विकार का कारण होता तो जिसके प्रति हम बहन की भावना रखते हैं, वैसी बहनों या सगी बहनों के प्रति भी हम में विकार उत्पन्न होता, परंतु ऐसा नहीं होता है ।
योगी पुरुष ने स्त्री शरीर-संबंधी अपने मानसिक संस्कार बदल दिये होते हैं और वे हमेशा जागृत होने से उन्हें किसी स्त्री से या वातावरण से विकार उत्पन्न नहीं होता है । क्योंकि कुछ समय सत्य स्वरूप की साधना करने से बुद्धि में सत्य का प्रकाश तो आ ही जाता है । बाह्य विकार बढ़ाने वाले वातावरण से और विकारी भावों से बचने के लिए जो सदा निर्विकार है उस परमेश्वर का चिन्तन, स्मरण और पुकार बढ़ा दीजिये । ‘मन- इन्द्रियों के विवादों में मैं फिसलूंगा नहीं । मैं निर्विकारी नारायण का हूँ और वे मेरे हैं।’ ‘मुझमें विकार है’ ऐसी गलती न करें तथा ‘मैं अपने विकार मिटाता हूँ’- यह अहं न रखें ।
श्री रामकृष्ण परमहंस माँ-माँ पुकारते थे । बाह्य और भीतरी सद्गुणों से सुंदर शारदा माँ के साथ रहते हुए भी वे संयम में सफल रहे । कितना सद्भाव ! एक बार संसारी लोगों की तरह विचार कर वे उनके पास गये और काली माता को माँ-माँ पुकारते ही भगवद्भाव में समाधिस्थ हो गये । स्त्री को या सारे जगत को वे तटस्थता से, साक्षीभाव से देखते हैं अथवा तो स्त्री या जगत के दृश्यों में वे चैतन्य को ही निहारते हैं ।
इससे आप देख सकते हैं कि स्त्री-परिचय और विषम वातावरण में उत्पन्न मानसिक विकृति के पीछे मूल उपादान कारण अर्थात् सत्य कारण तो हमारे अंतर में निहित मलिन वृत्तियाँ ही हैं । उन मलिन संस्कारों को यदि प्रयत्नपूर्वक दूर किया जाय, स्त्री-दर्शन में बहन, माता या आत्मभाव स्थापित किया जाय तो बाहरी जगत संयम-साधना में हमें कभी भी, कहीं भी विक्षेपकारी नहीं बनेगा ।
जैसे श्री रामकृष्ण शारदा माँ के साथ और गाँधीजी कस्तूरबा के साथ संयम में रहते थे । फिर भी शुरुआत में साधक को सात्विक वातावरण में, संयम में मददगार वातावरण का आश्रय लेना उचित ही है ।
– श्री मलूकचंद शाह
– ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2006