Sant Eknath Ji Maharaj Aur Bhagwan Sewa me unki; Story in Hindi/ Marathi

आज हम जानेंगे ~ ईश्वर भी ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की सेवा करने के लिए लालायित रहते हैं…..

संत एकनाथ जी के पास एक अनजान व्यक्ति आया और बड़ी विनम्रता से प्रार्थना करने लगा :
“महाराज ! मेरा नाम श्रीखंड्या है, मेरे कल्याण के लिए मुझे अपनी सेवा में रख लीजिए ।”

संत तो करुणा के सागर होते हैं ।

एकनाथ जी बोले: “ठीक है, कोई सेवा होगी तो बताऊंगा ।”

“नहीं महाराज ! मुझे आपके श्री चरणों में रहकर ही अखंड सेवा करनी है ।”

“कहाँ रहते हो ?”

“जहां जाता हूँ, वहीं का हो जाता हूँ ।”

“तुम्हारे माता-पिता और रिश्तेदार कौन हैं ?”

“वैसे तो मेरा कोई भी नहीं है पर सभी मुझे अपने लगते हैं ।”

एकनाथजी ने उसकी नम्रता और प्रेमभाव देखकर उसे अपने पास रख लिया । सेवानिष्ठा एवं तत्परता से श्रीखंड्या कुछ ही दिनों में एकनाथजी का विश्वासपात्र बन गया ।

उस समय द्वारका में एक भक्त भगवान के साक्षात दर्शन की कई वर्षों से अनुष्ठान कर रहा था उसकी निष्ठा देखकर रुक्मणी जी ने सपने में आकर पूछा :”बेटा इतनी कठोर तपस्या क्यों कर रहे हो ?”

“मुझे प्रभु के दर्शन करने हैं ।”

“किंतु इस समय प्रभु अपने लोक में नहीं हैं । वे तो पैठण में श्रीखंड्या के रूप में संत एकनाथ जी के घर सेवा कर रहे हैं ।”

यात्रा करके वह संत एकनाथ जी के घर पहुंच गया। द्वार पर झाड़ू लगाते हुए सेवक से पूछा :”क्या यह एकनाथजी का घर है ?”

सेवक : “जी हाँ”
“क्या यहाँ कोई श्रीखंड्या नाम का कोई  सेवक रहता है ?”

“जी, रहता है।”

“वह कहां है ?”

“अंदर जाकर पूछ लीजिए “

अंदर जाकर भक्त ने संत एकनाथजी को वंदन किया तो उन्होंने उससे पूछा  : “कहाँ से आए हो ? “

भक्त : “द्वारका से”

“इतने दूर से कैसे आना हुआ ?”

एकनाथजी ने सेवक को पानी लाने के लिए आवाज लगाई तो भक्त बोला : “महाराज ! पानी नहीं मिला तो चलेगा, पहले मुझे श्रीहरि के दर्शन करा दीजिए।”

“भाई ! श्रीहरि तो सबके हृदय में बसे हैं। उनके लिए इतना दूर आने की क्या आवश्यकता थी ?”

“महाराज ! मुझे श्रीहरि के प्रत्यक्ष दर्शन करने हैं जो आपके घर में सेवक के रूप में सेवा कर रहे हैं ।”

“यह आपको किसने कहा ?”

भक्त ने सपने की सारी बात बता दी । श्रीखंडया के रूप में श्रीहरि उनके घर में सेवा कर रहे हैं, ऐसा सुनते ही एकनाथ जी की आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगे :
“हे श्रीखंडया !  मेरे प्रभु ! कहाँ हो आप ?…”

तभी चारों तरफ प्रकाश-प्रकाश फैल गया । सौम्य, मनोहर रूप में प्रकट हुए भगवान मुस्कुराते हुए बोले : “एकनाथ संत तो मेरे ही स्वरूप होते हैं । संतों की सेवा करने में मुझे आनंद आता है । देखो, मेरे सीने पर जो चरणचिह्न है, यह एक संत का ही दिया हुआ है । इसे मैं संत का प्रेम-प्रतीक समझकर युगों-युगों से सँभाल रहा हूँ ।”

“पर आपने ऐसा क्यों किया ?”

“मैं ईश्वररूप में आता तो क्या आप मुझे सेवा करने देते ? आज मैं अपने संत की सेवा करके धन्य हुआ हूँ !” ऐसा कह कर प्रभु अंतर्धान हो गए ।

ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की सेवा के लिए भगवान भी तरसते हैं…ऐसे संतों की दैवी कार्यों में सहभागी होने का अवसर मिलता है उनके सौभाग्य की कितनी सराहना की जाए ! और उनको सताने में, उनकी निंदा करके अपने ही जीवन, कुल-परिवार की सुख-शांति तथा वर्तमान और भविष्य तबाह करने की दुर्मति जिनकी बन जाती है, उनके दुर्भाग्य का क्या कहा जाए !

➢ लोक कल्याण सेतु, फरवरी 2015