- माता अंजना उल्लासपूर्वक कथा सुनातीं और बालक हनुमानजी कथा-श्रवण से भावविभोर हो उठते । भावातिरेक से उनके नेत्रों में अश्रु भर आते, अंग फड़कने लगते । वे सोचते : “यदि मैं भी वही हनुमान होता…..”
- कथा सुनाते सुनाते माँ पूछतीं : “बेटा ! तू भी वैसा ही हनुमान बनेगा न ?”
- हनुमान : “हा माँ ! मैं अवश्य वही हनुमान बनूँगा । पर श्री राम और रावण कहाँ हैं ? यदि रावण ने जननी सीता की ओर दृष्टिपात भी किया तो मैं उसे पीसकर रख दूँगा ।”
- माँ अंजना कहतीं : “बेटा ! तू भी वही हनुमान हो जा । अब भी लंका में एक रावण राज्य करता है और अयोध्या-नरेश दशरथ के पुत्ररूप में श्रीरामजी का अवतार भी हो चुका है । तू जल्दी बड़ा हो जा ।
- श्रीरामजी की सहायता के लिए बल और पौरुष की आवश्यकता है । तू यथाशीघ्र बलवान और पराक्रमी हो जा ।”
- हनुमानजी कहते हैं कि “माँ ! मुझमें शक्ति की कमी कहाँ है ?” वे रात्रि से शय्या में कूद पड़ते और अपना भुजदंड दिखाकर माँ के सम्मुख अमिट शक्तिशाली होने का प्रमाण देने लगते। माँ अंजना हँसने लगतीं और गोद में लेकर उन्हें थपकियाँ देने लगतीं तथा मधुर स्वर में प्रभु स्तवन सुनाते हुए सुला देतीं ।
- सहज अनुराग से हनुमानजी बार-बार श्रीराम कथा श्रवण करते, जिससे उनके द्वारा भगवान श्रीराम का सतत स्मरण और चिंतन होता रहता । परिणामस्वरूप उनका श्रीराम-स्मरण उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होता गया । वे कभी अरण्य में, कभी पर्वत की गुफा में, कभी नदी के तट पर तो कभी घने वन में ध्यानस्थ होकर बैठ जाते । उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु प्रवाहित होने लगते ।
- भगवद् ध्यान में तन्मयता के कारण उन्हें भूख और प्यास का भी भान नहीं रहता । माँ अंजना मध्याह्न और शाम के समय अपने लाड़ले पुत्र को ढूंढने निकलतीं । वे जानतीं थीं कि हनुमानजी कहाँ होंगे । वे वनों, पर्वतों, नदियों,
झरनों, गुफाओं आदि में घूम-घूमकर हनुमानजी को ढूंढ़ लातीं और उनसे भोजन का आग्रह करतीं, तब कहीं हनुमानजी के मुँह में अन्न का ग्रास पहुँचता और यह क्रम प्रतिदिन चलता रहता । हनुमानजी अपने आराध्य के प्रेम में इतने तल्लीन रहते कि उन्हें अपने शरीर की भी सुध नहीं रहती । उनके मुँह से सदा “राम-राम” का ही जप होता रहता । - मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र जी के अनन्य भक्त हनुमानजी की उनके प्रति अनन्य निष्ठा अनुकरणीय है । एक बार स्वयं हनुमानजी ने भगवान श्रीराम के समक्ष विनम्रतापूर्वक प्रार्थना की :
“महाराज ! आपके प्रति मेरा महान स्नेह सदा बना रहे । वीर ! आपमें मेरी निश्चल भक्ति रहे। आपके सिवा और कहीं मेरा आंतरिक अनुराग न हो ।”
- ~ लोक कल्याण सेतु, मार्च-अप्रैल 2004