सद्गुरु से दीक्षा लेने के बाद जीवन में होने वाले परिवर्तन को समझाती हुई यह कहानी बच्चों को जरूर सुनाएँ ।
सद्गुरु मिल जाएँ तो वे अमृत स्वरूप आत्मा-परमात्मा के रस में हमें रसीला कर देते हैं ।”
एक राजा था । उसके पुत्र, परिवार, मंत्री सभी आज्ञाकारी थे । प्रजा भी उसका बहुत आदर करती थी । परंतु वह हमेशा उदास ही रहता था । उसके चेहरे से शांति व प्रसन्नता गायब हो चुकी थी ।
बुद्धिमान मंत्रियों ने राजा को सलाह दी कि ‘महाराज ! आप कभी-कभी वन-विहार भी किया करें, प्राकृतिक वातावरण में जाने से मन को शांति और आनंद मिलता है ।’
राजा को यह बात जँच गयी । एक दिन वह वन-विहार के लिए निकल पड़ा । रास्ते में उसने देखा कि एक गरीब गड़रिया भेड़ों को चराते हुए पेड़ की छाया में बैठा बड़े आनंद से बाँसुरी बजा रहा है । राजा को हुआ कि इसके पास कुछ भी नहीं है फिर भी यह इतने आनंद में क्यों है ? राजा ने तुरंत रथ रुकवाया और पास जाकर उसे देखने लगा । गड़रिया तो बाँसुरी की मधुर धुन में खोया हुआ था, उसे राजा के आने का आभास ही नहीं हुआ ।
कुछ देर बाद राजा बोला : “तुम्हारे पास ऐसा क्या खजाना है कि तुम इतने प्रसन्न हो ?”
राजा की आवाज सुन उसकी एकाग्रता टूटी । उसने बाँसुरी बजाना बंद कर प्रसन्न मुद्रा में राजा का अभिवादन किया । फिर मुस्कराते हुए बोला : “महाराज ! पहले मैं चिंताओं से घिरा, अपनी गरीबी व अनपढ़ होने के दुःख में डूबा रहता था, परंतु जब से मुझे गुरुदेव मिले और उनसे दीक्षा मिली तब से मेरे भीतर की दरिद्रता चली गयी । गुरुज्ञान से हर परिस्थिति में सुखी रहने व उसका सदुपयोग करने की युक्ति मिल गयी है । रोज यहाँ आकर भेड़ें चराता हूँ, घर से लायी नमक-रोटी गुरु भगवान का प्रसाद समझकर पा लेता हूँ, झरने का पानी पी लेता हूँ । जब ये भेड़ें चरती हैं तो मैं बाँसुरी की मीठी धुन के साथ परमात्मा की मधुर स्मृति में खो जाता हूँ । इसमें बड़ा आनंद आता है महाराज ! गुरुकृपा से प्रसन्नता तो अपने घर का खजाना हो गयी है । अपना कर्म ईमानदारी से करता हूँ, बाकी का समय ईश्वर-चिंतन में लगाता हूँ । गुरुज्ञान से अब मैंने यह जान लिया है कि परमेश्वर ही आनंदस्वरूप हैं और उनका चिंतन-सुमिरन करनेवाले पर वे अपना आनंद-माधुर्य उड़ेल देते हैं ।”
राजा को उसकी बातों से बड़ा आनंद आ रहा था । थोड़ी देर के लिए वह भी हृदय की गहराई में खो गया । जब गड़रिये की बात पूरी हुई तो राजा को उस शांति और प्रसन्नता के आगे अपना विषय-विलास तुच्छ लगने लगा ।
उसने कहा : “तू मेरा धन, भोग ले ले और उसके बदले मुझे अपनी शांति और प्रसन्नता दे दे ।”
तब गड़रिया खिलखिलाकर हँसा और बोला :
“महाराज ! यदि प्रसन्नता पैसे से खरीदने की वस्तु होती तो मैं दे देता। यदि ऐसा होता तो धनी लोग सबसे अधिक सुखी होते, किंतु बात ऐसी नहीं है । प्रसन्नता तो हृदय की वस्तु है, जो सद्गुरु की शरण जाकर अंतर्यामी हृदयेश्वर का ज्ञान पाने से मिलती है । उस ज्ञान को सुनकर चिंतन-मनन करने से वह स्थायी हो जाती है और ज्ञान को आचरण में लाकर उसके अनुसार जीवन बनाने से वह प्रसन्नता जीवन से ऐसे अभिन्न हो जाती है कि पहाड़ों जैसी विपत्तियाँ भी उसे मिटा नहीं सकतीं ।”
उस राजा को प्रसन्नता का राजमार्ग मिल गया । उसने गड़रिये को धन्यवाद दिया और उसे अपने रथ में बिठाकर चल पड़ा उसके गुरु के आश्रम की ओर… ।
सीख : जिसके जीवन सद्गुरु का ज्ञान रहता है वह सदा आनन्दित रहता है ।
➢ लोक कल्याण सेतु, मई 2011