पूज्य बापूजी के सत्संग में आता है कि तीन साल की उम्र में ही हम पर वाणी देवी की ऐसी कृपा थी कि क्या बतायें ,एक बार चौथी कक्षा के बच्चों को शिक्षक ने एक कविता याद करने को दी थी परंतु कोई भी याद करके नहीं सुना पाया। अब सबको मार पड़नेवाली थी और उनमें हमारा भाई भी था।
मैं भी उनके साथ ही बैठा था तो भाई के नाते मेरा दिल पिघला और मैंने शिक्षक से कहा ‘‘इनको मत मारो ।”
शिक्षक ने कहा: “तो क्या तू सुना देगा ??”
मैंने पूरी कविता सुना दी तो शिक्षक सहित सभी लोग चकित रह गये।”हमारी १० वर्ष की उम्र में तो ऋद्धि-सिद्धि की झलकें देखी गयी थीं।”
बापूजी के बड़े भाई की दुकान पर एक व्यक्ति काम करता था। पूज्यश्री की पढाई तीसरी कक्षा तक हुई थी और वह बी.ए. तक पढ़ा था मगर बापूजी उसके द्वारा हिसाब में हुई भूल पकड़ लेते थे।
बचपन में ही ऐसी प्रतिभा के धनी थे। बापूजी छोटी उम्र में ही बड़े-बड़े लोगों की समस्याओं को हँसते-खेलते सुलझा देते थे। ऐसे एक नहीं, अनेक प्रसंग हैं। ध्यान करते थे इसलिए एकाग्रता और कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। माता-पिता व गुरु की सेवा से तथा परोपकार से बुद्धि कुशाग्र बनती है।
तीव्र बुद्धि एकाग्र नम्रता,
त्वरित कार्य औ’ सहनशीलता ॥