- बंगाल में विपिन बिहारी भट्टाचार्य और मोक्षदा सुंदरी के घर एक कन्या का जन्म हुआ, नाम रखा निर्मला । निर्मला शुरू से ही ईश्वर के आनंद में मस्त रहती थी । गाँव में चूड़ी आदि बेचने वाले आते तो दूसरे बच्चे उन वस्तुओं की माँग करते पर निर्मला की कोई माँग नहीं रहती थी । वह संतोषी व जिज्ञासु स्वभाव की थी ।
- पिता से पूछती : “पिताजी ! हरि कौन हैं ? उनका नाम लेने से क्या होता है ?”
- पिता : “हरि भगवान का ही नाम है । उनको हृदय से पुकारने पर वे प्रसन्न होते हैं ।”
- “वे कितने बड़े हैं ? क्या इस मैदान में नहीं आयेंगे ?”
- “नहीं, उन्हें पुकारने पर वे आते हैं, तब देख लेना वे कितने बड़े हैं ।”
- एक दिन कीर्तन की आवाज सुनकर उसने पूछा : “माँ ! कीर्तन करने से क्या होता है ?”
- “बेटी ! मन पवित्र होता है, आनंद आता है और भगवान प्रसन्न होते हैं । उनका मन में नाम लेने पर भी वे सुन सकते हैं । भगवान सब देखते हैं, सब जानते हैं, सबमें हैं, वे सब कुछ करते हैं और फिर भी कुछ नहीं करते ।”
- एक दिन किसी ने निर्मला को चाँदी की पायल पहना दी । तालाब पर नहाते समय उसने उसे खोलकर किनारे रख दिया और बाद में बिना पहने ही घर लौट आयी । माता के पुनः भेजने पर उसने अच्छे-से खोज की किंतु पायल न मिली । ‘यथा नाम तथा गुण’ बालिका निर्मला निर्लेप भाव से चेहरे पर वही निर्मल मुस्कान लिये घर लौटी और माँ से बोली : “माँ ! पायल तो नहीं मिली पर मायूस न होना, कोई पहनने के लिए ले गया होगा ।”
- बच्ची की निर्मल और मुस्कान निर्दोष ज्ञानसम्मत वाणी से सुसंस्कारी माँ मोक्षदा सुंदरी आनंदित हुई ।
- यही जिज्ञासु, संतोषी बालिका आगे चलकर ‘आनंदमयी माँ’ के रूप में सुविख्यात हुई ।
- महापुरुषों का सत्संग हमें यह सीख देता है कि आप भी अपने जीवन में पुरुषार्थ तो पूरा करें किंतु अपेक्षित फल न मिलने पर अपने मन को चिंतित, दुःखी, उद्विग्न और विषम न करें और मन ऐसा हो भी जाय तो उसकी वह विषमता ‘मैं चिंतित हूँ… दुःखी हूँ…’ इस प्रकार अपने ‘मैं’ में आरोपित कर उसे और दृढीभूत, विकट और स्थायी न करें । इसके स्थान पर अपने हृदय को सद्भाव, समता और सत्संग की समझ से सम्पन्न रखकर हृदयकोष की रक्षा करें ।
- आनंदमयी माँ कहा करती थीं : “हर काम में भगवान को पकड़ के रखना चाहिए । जीवन का उद्देश्य है अपने को जानना, अपने को जानना ही भगवान को पहचानना है । उसी में शांति और आनंद है ।”
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– लोक कल्याण सेतु, मार्च 2019