- संतों को नित्य अवतार माना गया है । कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं संत होंगे और उनके हृदय में भगवान अवतरित होकर समाज में सही ज्ञान व सही आनंद का प्रकाश फैलाते हैं । उनके नाम पर, धर्म के नाम पर कहीं कितना भी, कुछ भी चलता रहता है फिर भी संत-अवतरण (Sant Avtaran) के कारण समाज में भगवत्सत्ता, भगवत्प्रीति, भगवद्ज्ञान, भगवद्-अर्पण बुद्धि के कर्मों का सिलसिला भगवान चलवाते रहते हैं….।
तो आपके कर्म भी दिव्य हो जायेंगे....
- साधारण आदमी अपने स्वार्थ से काम करता है, भगवान और महात्मा परहित के लिए काम करते हैं । महात्माओं का जन्मदिवस मनाने वाले साधक भी परहित के लिए काम कर रहे हैं तो साधकों के भी कर्म दिव्य हो गये ।
- इस दिवस पर जो भी सेवाकार्य करते हैं, वे करने का राग मिटाते हैं, भोगने का लालच मिटाते हैं और भगवान व गुरु के नाते परहित करते हैं । उन साधकों को जो आनंद आता होगा, जो कीर्तन में मस्ती आती होगी या गरीबों को भोजन कराने में जो संतोष का अनुभव होता होगा, विद्यार्थियों को नोटबुक बाँटने में तथा भिन्न-भिन्न सेवाकार्यों में जो आनंद आता होगा, वह सब दिव्य होगा । इस दिन के निमित्त प्रतिवर्ष गरीबों में लाखों टोपियाँ बँटती हैं, लाखों बच्चों को भोजन मिलता है और लाखों-लाखों कॉपियां बँटती हैं । औषधालयों में, अस्पतालों में, और जगहों पर – जिसको जहाँ भी सेवा मिलती है, वे सेवा ढूँढ लेते हैं । अपने स्वार्थ के लिए कर्म करते हैं तो उससे कर्मबंधन हो जाता है और परहित के लिए कर्म करते हैं तो कर्म दिव्य हो जाता है ।
आपको जगाने के लिए क्या-क्या कर्म करते हैं....!!
- आप जिसका जन्मदिवस मना रहे हैं, वास्तव में वह मैं हूँ नहीं, था नहीं । फिर भी आप जन्म दिवस मना रहे हैं तो मैं इन्कार भी नहीं करता हूँ । आपने मुकुट पहना दिया तो पहन लिया, फूलों की चादर ओढ़ा दी तो ओढ़ ली । इस बहाने भी आपका जन्म-कर्म दिव्य हो जाये । वे महापुरुष हमें जगाने की न जाने क्या-क्या कलाएँ, क्या-क्या लीलाएँ करते रहते हैं ! नहीं तो ये टॉफी बाँटना, रंग छिड़कना, प्रसाद लेना-बाँटना – ये हमारी दुनिया के आगे बहुत-बहुत छोटी बात है । लेकिन करें तो करें क्या ?
- आध्यात्मिकता में जिनकी बचकानी समझ है, एक दो की नहीं लगभग सभी की है, उन्हें उठाना-जगाना है । यह अपने-आप में बहुत भारी तपस्या है । एकाग्रता के तप से भी ऊँचा तप है । वे महापुरुष नित्य नवीन रस अद्वैत ब्रह्म में हैं लेकिन नित्य द्वैत के व्यवहार में उतरते हुए हमको ऊपर उठाते हैं ।
- यह जो कुछ आँखों से दिखता है, जीभ से चखने में आता है, नाक से सूँघने में आता है, मन और बुद्धि से सोचने में आता है – ये सब वास्तव में है ही नहीं । जैसे स्वप्न में सब चीजें सच्ची लगती हैं, आँख खोली तो वास्तविकता में नहीं हैं, ऐसे ही ये सब सचमुच में, वास्तविकता में नहीं है ।
आप भी इसका मजा लो....!!
- वास्तव में प्रकृति और चैतन्य परमात्मा है, बाकी कुछ भी ठोस नहीं है । सिर्फ लगता है यह ठोस है । 10 मिनट हररोज भावना करो कि ‘यह सब स्वप्न है, परिवर्तनशील है । इन सबके पीछे एक सूत्रधार चैतन्य है और अष्टधा प्रकृति है ।’ यह याद रखो और स्वप्न का मजा लो तो उसकी गंदगी अथवा विशेषता से आप बंधायमान नहीं होंगे ।
भगवान व गुरु भक्त का पक्ष लेते हैं....!!
- भगवान और गुरु के साथ एकतानता हो जाय तो भगवान और गुरु का अनुभव एक ही होता है । ब्रह्म-परमात्मा तटस्थ हैं, गुरु और भगवान पक्षपाती हैं । ब्रह्म-परमात्मा प्रकाश देते हैं, चेतना देते हैं, कोई कुछ भी करे… लेकिन भगवान और गुरु भक्त का पक्ष लेते हैं । भक्त अच्छा करेगा तो प्रोत्साहित करेंगे, बुरा करेगा तो डाँटेंगे, बुराई से बचने में मदद करेंगे, भक्त की रक्षा करेंगे । ‘चतुर्भुजी नारायण भगवान नन्हें हो जाओ’ तो माता की प्रार्थना पर ‘उवाँ…..उवाँ……’ करते हुए रामजी बन गये, श्रीकृष्ण बन गये । भक्त के पक्ष में वराह अवतार, मत्स्य अवतार, अंतर्यामी अवतार, प्रेरक अवतार ले लेते हैं ।
जन्मदिवस मनाने का उद्देश्य क्या.... ?
- यह जन्म दिवस मनाने के पीछे भी एक ऊँचा उद्देश्य है । ‘मैं कौन हूँ ?…’ – ‘मैं फलाना हूँ….’ पर यह तो शरीर है, इसको जानने वाला मन है, निर्णय करने वाली बुद्धि है । ये सब तो बदलते हैं फिर भी जो नहीं बदलता है, वह मैं कौन हूँ ?’ – ऐसा खोजते-खोजते गुरु के संकेत से सदाचारी जीवन जिये तो ‘मैं कौन हूँ ?’ इसको जान लेना और जन्म दिव्य हो जायेगा। जन्म दिव्य होते ही कर्म दिव्य हो जायेंगे क्योंकि सुख पाने की लालसा नहीं है, दुःख से बचने का भय नहीं है और ‘जो है, बना रहे’ ऐसी उसकी नासमझी नहीं है ।
- मरने वाले शरीर का जन्मदिवस तो मनाओ पर उसी निमित्त मनाओ, जिससे सत्कर्म हो जायें, सदबुद्धि का विकास हो जाये । इस उत्सव में नाच कूद के बाहर की आपाधापी मिटाकर सदभाव जगा के फिर शांत हो जायें । श्रीमद् आद्यशंकराचार्यजी ने कहा है :
मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं…
- ‘मैं शरीर भी नहीं हूँ, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त भी नहीं हूँ । तो फिर क्या हूँ ?’ बस, डूब जाओ, तड़पो….. प्रकट हो जायेगा ।
- – ऋषि प्रसाद, मार्च 2015