Coconut Significance in Puja [Nariyal Shubh Kyu]

What is the spiritual meaning of coconut? Coconut for Puja Importance in Hindi:

  • अपना सिर अर्पण करने का प्रतीक है नारियल । यह अर्पण करना अर्थात् अपना अहं, अपनी मनमुखता अर्पण करना ।”
  • वही नारियल आज मठ-मंदिरों में भगवान व गुरुओं को चढ़ाया जाता है । अपना सिर अर्पण करने का प्रतीक है नारियल । यह अर्पण करना अर्थात् अपना अहं, अपनी मनमुखता अर्पण करना ।”
  • नारियल को शुभ, समृद्धि, सम्मान, उन्नति तथा सौभाग्य का प्रतीक माना गया है । धार्मिक उत्सवों, पूजा-पाठ एवं शुभ कार्यों की शुरुआत में नारियल समर्पित किया जाता है । इसे भगवान शिवजी का प्रतीक भी माना जाता है । शिवजी के ३ नेत्र हैं । नारियल के भी ३ नेत्र होते हैं । अतः यह भगवान शिव का परम प्रिय फल भी माना गया है ।
  • नारियल को संस्कृत में ‘श्रीफल’ कहा गया है । ‘श्री’ ऐश्वर्य का प्रतीक है । अतः नारियल भी ऐश्वर्य, वैभव एवं सम्पन्नता का प्रतीक है । पवित्रता एवं आध्यात्मिक लाभ की दृष्टि से श्रीफल को श्रेष्ठ फल कहा गया है ।
  • मंदिर, आश्रम आदि धार्मिक स्थलों में नारियल चढ़ाने की परम्परा है । साथ ही यह औषधीय गुणों से युक्त होने से विभिन्न शारीरिक व्याधियों से रक्षा करने में भी सहायक है ।
  • पूज्य बापूजी ने नारियल चढ़ाने के तात्विक रहस्य तथा नारियल की उत्पत्ति के बारे में शास्त्र प्रसंग के माध्यम से समझाया है । पूज्यश्री के सत्संग-वचनामृत में आता है : “जैसे ब्रह्माजी ने तपोबल से सृष्टि बनायी ऐसे ही विश्वामित्र जी ने भी उपासना की और सृष्टि बनायी । ब्रह्माजी ने संकल्प से चावल, जौ, तिल बनाये तो विश्वामित्रजी ने संकल्प से मक्का, ज्वार, बाजरा बनाये । ब्रह्माजी ने जरायुज (जेरज) अर्थात् गर्भ से जेर में लिपटे हुए पैदा होने वाले मनुष्य बनाये तो विश्वामित्र जी ने गर्भधारण किये बिना ही पेड़ से मनुष्य पैदा करने की ठान ली और उसमें थोड़ी प्रगति भी की । जैसे मनुष्य का सिर है ऐसे ही जो नारियल है वह उनकी मनुष्य बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत थी । बाद में वह सब अधूरा रह गया । उनकी संकल्प शक्ति वहीं रुक गयी ।
  • वही नारियल आज मठ-मंदिरों में भगवान व गुरुओं को चढ़ाया जाता है । अपना सिर अर्पण करने का प्रतीक है नारियल । यह अर्पण करना अर्थात् अपना अहं, अपनी मनमुखता अर्पण करना ।”
  • नारियल भीतर से नरम, स्वास्थ्यप्रद, मधुर एवं अमृत तुल्य जल से भरा हुआ होता है परंतु बाहर से बहुत कठोर होता है । इसी प्रकार सज्जन व साधकों को भी भीतर से मुलायम, दयालु एवं सबके प्रति सहानुभूतिपूर्ण हृदयवाला होना चाहिए परंतु बाहर से कठोर रहना चाहिए, जिससे दुर्जन व्यक्ति तुम्हारी सज्जनता का दुरुपयोग न कर पाएँ, तुम्हें तुम्हारी धर्म-संस्कृति से, तुम्हारे ईश्वरप्राप्ति रूपी अमृतमय लक्ष्य से डिगा न पाएँ ।
    – लोक कल्याण सेतु, सितम्बर 2020