ve tumhein uncha uthana chahte hain
  • एक ब्राह्मण का पुत्र था,  काशी पढ़ने गया । पढ़ के लौट रहा था तो वहाँ के लोगों ने सम्मान किया कि ‘गुरुकुल में पहला नम्बर आया है, बड़ा विद्वान है । आदर – सत्कार से लोगों ने विदाई दी । वह अपने गाँव आया । शास्त्री पढ़ा था तो जरा विद्वत्ता का अभिमान अंदर था । पिता को पता चला कि बेटा आ गया है तो ज्यों ही वह घर में प्रवेश करने लगा त्यों ही वे जानबूझ के उसकी माँ के साथ बात करने लगे । “तेरा लड़का आज आयेगा लेकिन मैंने जैसा चाहा वैसा तो नहीं बना, शास्त्री की पदवी ले के आयेगा । मैंने जाँच करवायी है, ऐसी कोई खास तरक्की नहीं की ।”
  • लड़का सुन रहा है । वह जो अभिमान से भरा हुआ था, ठुस्स हो गया ।
  • फिर पिता बोले : “शास्त्री पढ़ा तो क्या पढ़ा ! मैं तो उम्मीद रखता था कि कहाँ-का-कहाँ पहुँचेगा !” लड़के को लगा कि ‘मैं तो पढ़ाई निपटा के आया हूँ लेकिन अभी बाकी है । एकाध दिन रहा घर में । फिर आज्ञा ले के गया पढने और आचार्य हो गया । शास्त्रों के उदाहरण, बढ़िया बढ़िया श्लोक, तत्वज्ञान के श्लोक कंठस्थ कर लिये और घर आया ।
  • पिता फिर से बोले कि “मैं समझा था कि विद्वान होगा, आत्मरामी होगा लेकिन यह तो पंडित हुआ, खाली सिर खपाऊ । खाली विद्वान होने की भ्रान्ति ले आया अपनी खोपड़ी में, और क्या किया ! 17 साल हमारे व्यर्थ गये । इससे तो नहीं पढ़ता तो अच्छा था ।”
  • लड़के को हुआ कि ‘कई विषयों में आचार्य (आचार्य – एम.ए.) तक पढ़ा, वहाँ काशी में सर्वप्रथम आया हूँ और मेरे पिता तो कुछ भी गौर नहीं कर रहे हैं ।
  • पिता ने कहा : “जिसको उपनिषदों आत्मा – अनात्मा का, जीव – ब्रह्म की एकता का ज्ञान नहीं वह तो अज्ञान में ही पड़ा है, प्रकृति में ही पड़ा है और प्रकृति तो जड़ है । उसी का खोपड़ी में विस्तार किया और क्या किया !
  • लड़का फिर गया । लेकिन गया तो विद्वानों के पास । और जड़-चेतन का, प्रकृति-पुरुष का, जीव-ब्रह्म का विवेक – ये सब न्यायशास्त्र, तर्कशास्त्र…. आकाश का गुण है शब्द, शब्दगुणकं आकाश । … वायु दो तरह की होती है
नित्योऽनित्यश्च नित्यः परमाणुरूपः अनित्यः कार्यरूपः ।
  • इस प्रकार की जो कुछ प्रक्रियाएं थीं, सिद्धांत थे वे सब खोपड़ी में भर के आया । ज्यों घर में प्रवेश कर रहा था त्यों ही उसकी माँ के आगे पिता ने उसकी निंदा करना चालू कर दिया । “बार-बार गया लेकिन वही गधे-का-गधा हो के लौटा ।” इसको लगा कि ‘मैं इतने लोगों को शास्त्रार्थ में परास्त करके आया हूँ और मेरे को कहते हैं ‘गधा’ ! ये कोई बाप हैं ?? ऐसे बाप का तो गला दबाना चाहिए, पैर क्या छूना !
  • पुत्र के मन में पिता के प्रति कुविचार आ गया । उसकी माँ पिता को कहती है कि “जब वह आने को होता है और जब भी वह आपके आगे अपनी विद्या की बात करता है तब आप उसको तुच्छ साबित करते हो, डाँटते – फटकारते हो । फिर वह मेरे आगे रो के, निराश हो के जाता है ।”
  • पिता कुछ बोले नहीं क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि लड़का सुन रहा है । लड़का माँ के पास रो के फिर कहीं गाँव में इधर – उधर गया ।
  • कुछ देर बाद माँ ने वही बात दोहरायी । लेकिन अब पिता को पता नहीं था कि बेटा गाँव में से घूम के आया है और बाजू वाले कमरे में बैठा हैं । अपने बारे में चर्चा शुरू होती देख बेटा दरवाजे के पीछे छुप के सुनने लगा ।
  • पिता ने कहा : “तू नादान है । तू उसको क्या जानती है ! मैं जानता हूँ, ऐसा लड़का तो लाखों में किसी-किसी के घर पैदा होता है ।”
  • “तो फिर उसको क्यों फटकारते हो ?”
  • “ऐसा नहीं करता तो वह इतनी ऊँचाई तक पहुँचता भी नहीं । मेरे को इसको और ऊपर उठाना है ।”
  • छुप के सुन रहा बेटा विचार करने लगा, ‘अरे ! पिताजी के अंदर में तो महान बनाने का भाव है और बाहर से बोलते हैं कि ‘तू कुछ नहीं है, इतना किया तो क्या ? कुछ नहीं…’ और मैं ऐसे पिता को प्रणाम करने में भी हिचकिचाता हूँ ।’ उससे रहा नहीं गया, वह दौड़ा-दौड़ा चरणों में गिर पड़ा, जैसे सूखा बाँस गिरता है ।
  • बोला : “पिताजी ! माफ करो, माफ करो । मैं आपकी महानता को नहीं समझ पाया, मैं मूर्ख था । वास्तव में मैं मूर्ख था ! आपने मेरे को कितना ऊँचा उठाया ! अगर आप ऐसा नहीं करते तो मैं इतनी ऊँचाई तक नहीं पहुँचता । आपकी कृपा से मैं यहाँ तक पहुँचा और इससे भी उन्नत होऊँगा, आत्मानुभव को प्राप्त करूँगा लेकिन एक बार मेरे मन में आ गया कि ‘मेरे पिता सदा मेरे को डाँटते हैं तो ऐसे पिता का तो गला दबाना चाहिए ।’ ऐसा मेरे मन में पाप आ गया ।”
  • फिर लड़के ने अपनी भूल का प्रायश्चित किया ।
  • ऑफिसों में या दूसरी जगह ऑडिट अथवा लेखा-परीक्षण होता है न, तो तुमने बढ़िया-बढ़िया क्या लिखा है, तुम्हारा आज तक का बढ़िया – बढ़िया लेखा – जोखा कौन सा है ऐसा थोड़े ही ऑडिटर या परीक्षक देखेगा ! ऑडिट का मतलब है ‘गलती कहाँ है ? कमी क्या है ?’ ऐसे ही हितैषी क्या सोचेगा ? कि कमी कहाँ है और कैसे निकले ?
  • अपने जीवन में जो कमी है उसको तुम देखो । दिखेगी तब जब तुम्हारे से दूर होगी । और तुम देखोगे नहीं तो तुम्हारे में बैठ जायेगी । तुम देखोगे तो तुम्हारे से दूर हो जायेगी । तो फिर उसको अपने में मानो नहीं । ‘यह जो कमी दिख रही है, मेरे में नहीं है, चित्त में है । चित्त का मैं द्रष्टा हूँ, साक्षी हूँ, ॐ आनंद…’
  • आप इस प्रकार का अभ्यास बनाओ तो कमियाँ भी निकलती जायेंगी और आत्मज्ञान की यात्रा भी होती जायेगी । यह युक्ति है ।
    – ऋषि प्रसाद, नवम्बर-दिसम्बर 2019